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स्त्रोत भरे / कैलाश पण्डा

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<poem>
हे मेरे देव !
मुझ से अब प्रेम की रसधार
प्रस्फुटित नहीं होती
क्योंकि मेरे अन्तः में
ढोल नगाड़े एवं घण्टियां
मौन पड़े हैं
जिसकी जगह बंदूक-मिसाइल बम की ध्वनि
विकसित होती रहती है
तेरी प्रतिमा की आभा
धुंधली दिखलाई पड़ती है
मेरे ह्रदय से दया के स्त्रोत
सुख चुके हैं
तेरी मुर्ति पर दुग्ध-धार से
सिच्चित करूं भी तो कैसे ?
हे प्रभो
रसघार धरो, स्त्रोत भरो
पुनः प्रवेश करो
मेरे अंतः की उस मूर्ति में।

</poem>
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