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उस ओर / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
असंख्य
शुक्राणुओं के मध्य
भागते-भागते
मां के गर्भ में
स्थान पा लिया था
जीवन मिला
धन्य हुआ
क्रमशः सांसरिक गतिविधियों में
प्रवाहित सा
असमंजस की स्थिति में
चिंतन करता
चोटें खाता
कभी मध्य मझधार में
सून सा
टकटकी लगाये
अर्थविहीन
एक जैसा प्रतिदिन
आदत से लाचार
प्रवृत्ति भागने की अब भी
पा न सका पार
वही किस्ती
जो भ्रमण करती है केवल
झेलता हूं निरन्तर उष्णधार
भोगवृति में रत
जीवन यापन
उदरपूर्ति हेतु
काश खोजबीन की
नवीनता में
होता उत्कण्डित
अंतस् को तापता
मस्तिष्क परोपकरमय हो
ठहर जाता
स्वयं में स्थित हो
वृत्तियों से मुक्त
निकल जाता
भंवर से उस ओर।
</poem>
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