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मौलिकता को परखो / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
तुम्हारी चिंतन परक
बुद्धि को
थोपा गया मत सर्प की भांति
निगल रहा है बंधु
तुम सौदागार हो
अथवा विवेकहीन
बड़ी चतुरताई पूर्वक तुम जैसों को
बगुला भी धर पकड़ता
चाहकर भी तो मुक्त कहां हो पाते
मतवाले अहं को कब छोड़ते
ये स्वयं भू सत्यवादी
दिशा है मौन
मत मतांतरों की बैसाखियां
कही तुम्हें गति तो नहीं दे रही
अपनी चाल में
मौलिकता का अभाव परखो
साथ ही सिद्धान्तों को समझो
स्वयं के अस्तित्व के लिए ही सही
जरा सोचो।
</poem>
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