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ये कैसा संन्यास / कैलाश पण्डा

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<poem>
ये कैसा सन्यास
घर को छोड़ा
मठ ने पकड़ा
उसके सान्धिय में
पूर्ण होती दिनचर्या
एक पंथ
दूसरा मजहब
तू-तू मैं-मैं अब भी
अहम् की पूजा दिन रात
सांझ सबेरे पूजा अजान
किन्तु खोया भगवान ।
</poem>
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