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मर्यादित प्रेम / कैलाश पण्डा

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|संग्रह=स्पन्दन / कैलाश पण्डा
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<poem>
मैने देखा है चुपके से
नीड़ से निकलते हुए
एक चातकी को
गहरे झुरमुट से
झंका है मैंने
धुंधलाई सी आभा में
दूर से भी निकटता का
आभास किया है
किन्तु छू लेने की चेष्टाएं
नहीं की।
वह केवल देह मात्र नहीं
वह भाव है
सुखद दृष्टि है
आशा तेज अरू प्राण है
करूणा वात्सल्य की
प्रतिमूर्ति है वह
वह पारितोषिक
वह शरद् पूर्णिमा
अरू प्रेम की
बहती हुई अनवरत धारा
जो उसके सुन्दर होने का प्रमाण देते हैं
सच पूछो तो
मैने उससे कभी बतियाने की
चेष्टाएं भी नहीं की
क्योंकि उसकी दृष्टि
बहुत कुछ कह देती थी मुझे
हे दाता,
तेरे प्रसाद से वंचित ना रह जाऊं
जन्मजन्मान्तर देना
केवल ऐसा ही
मर्यादित ऐसा ही
मर्यादित प्यार।
</poem>
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