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Kavita Kosh से
कुछ लजाती, कुछ मुस्काती, शीतल-उज्ज्वल मन में,
पहले बोली थी मुझसे आऊँगी न अब तेरे द्वारे,
ना मीठी चंचल बातें, तुम्हारे अतिरिक्त न कोई प्रतीक्षा।
मैंने तुम्हंे तुम्हें मना ही लिया अब तुम्हें जाने न दूँगी,
चले न जाना तुम फिर से, कल्पनाओं आशाओं मेरी।
लड़खड़ाती किंतु संभलती सँभलती हुई मंथर-मंथर
चली आ रहीं हैं मेरी कल्पनाएँ, मेरी आशाएँ।
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