भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सम्भवतः / कविता भट्ट

2,194 bytes added, 05:22, 14 फ़रवरी 2018
{{KKCatKavita}}
<poem>
 
दीवारों के साये और घूँघट की सलवटें
स्वप्निल क्षणों से भारी मुँदी पलकों के सपने
नैना हैं झुके-से और मन भी हुआ भारी
न स्वतंत्रता न निर्णय न ही मन में चिंगारी
किंतु अभी कुछ मंद-चेतना शेष है सम्भवतः
 
किसको कितना चाहा कितना स्नेह दिया
किसकी आँखों में खोजती रही स्वयं को कितना
या फिर स्वयं के अहं को डुबो दिया
उन झूठी फरेबी आँखों के भँवर में तिनका।-सा
चाहे दीर्घ-पीड़ा हो किंतु आशा अवशेष है सम्भवतः
 
बस दो ही चौखटों पर झुकाया था अपना सिर
या परमेश्वर के मंदिर में उनके दर पर या फिर
न वही उसका हुआ, न करुण कहानी सुने वह ईश्वर
जीवन देना हाथ में ईश के, पर बिताना उसके निर्णय पर
मन-प्रतिध्वनि दबी किंतु कुछ भावना शेष है सम्भवतः
किस पर प्रकट किया जाए इन ज्वार-भाटे को
अपने नैनों में उफनती सरिता और मन-ज्वालाओं को
झुठला दें क्या शहनाइयों और उन फूलों की मालाओं को
मन-मस्तिष्क क्या भुला पाएगा सीता और उन उर्मिलाओं को
झेला अपमान बहुत किंतु कुछ विश्वास शेष है सम्भवतः
</poem>