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Kavita Kosh से
चोटी से देखता हूंहूँ
चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक
ढो ले जाएंगे पहाड़
बदल जाएंगे छतों में
आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है
अब पहाड़ों को तो चििड़याखानों चिड़ि़याख़ानों में
रखा नहीं जा सकता
तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़
और भी खूबूसरत ख़ूबसरत होते बादलों को छूते से
हो सकता है
नीले, सफ़ेद
या सुनहले हो जाएंजाएँ
द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं की तरह
और उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए
वे हो जाएं जाएँ लुभावने
केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।