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कैसा वलंद गुरूत्वाकर्षण तो धरती में है फिर क्यों खींचते हैं पहाड़जिसे देखोउधर ही भागा जा रहा है
एक चट्टानबादलपहाडों को भागते हैंचाहे बरस जाना पडे टकराकरहवापहाड़ को जाती हैटकराती है ओर मुड जाती हैसूरज सबसे पहलेपहाड़ छूता हैभेदना चाहता है उसका अंधेराचांदनी वहीं विराजती हैपड जाती है धूमिल
जैसे खड़ी होती है आदमी के सामनेपरपेडों को देखेकैसे चढे जा रहे जमे जा रहेजाकर
उसका रुख मोड़ती हुईचढ तो कोई भी सकता है पहाडपर टिकता वही हैजिसकी जडें हो गहरी
खड़ा है यह हवाओं के सामनेबादलों की तरहउडकरजाओगे पहाड तक
चोटी से देखता हूँ चींटियों से रेंग रहे हैं ट्रक इसकी छाती पर जो धीरे-धीरे शहरों को ढो ले जाएंगे पहाड़ जहाँ वे सड़कों, रेल लाइनों पर बिछ जाएंगे बदल जाएंगे छतों में धीरे-धीरे मिट जाएंगे पहाड़ तब शायद मंगल से लाएंगे हम उनकी तस्वीरें या बृहस्पति, सूर्य से बाघ-चीते थे तो रक्षा करते थे पहाड़ों की, जंगलों की आदमी ने उन्हें अभयारण्यों में डाल रखा है अब पहाड़ों को तो चिड़ि़याख़ानों में रखा नहीं जा सकता प्रजनन कराकर बढ़ाई नहीं जा सकती इनकी तादाद जब नहीं होंगे सच में तो स्मृतियों में रहेंगे पहाड़ और भी ख़ूबसरत होते बादलों को छूते से हो सकता है वे काले से नीले, सफ़ेद या सुनहले हो जाएँ द्रविड़ से आर्य हुए देवताओं नदी की तरहउतार देंगे पहाडऔर उनकी कठोरता तथाकथित हो जाए वे हो जाएँ लुभावने केदारनाथ सिंह के बाघ की तरह।हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर .