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पहाड़ / कुमार मुकुल

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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार मुकुल
|अनुवादक=|संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ परिदृश्य के भीतर / कुमार मुकुल
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
गुरूत्‍वाकर्षण तो धरती में है
फिर क्‍यों खींचते हैं पहाड़
बादल
पहाडों को भागते हैं
चाहे
बरस जाना पडे टकराकर
हवा
पर
पेडों को देखे
कैसे चढे जा रहे
जमे जा रहे
जाकर
चढ तो कोई भी सकता है पहाड
पर टिकता वही है
जिसकी जडें हो गहरी जो चटटानों का सीना चीर सकेंउन्‍हें माटी कर सकें
बादलों की तरह
उडकर
जाओगे पहाड तक  
तो
नदी की तरह
उतार देंगे पहाड
हाथों में मुटठी भर रेत थमा कर ।कर।</poem>
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