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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता।
भटक जाता परिन्दा गर स्वयं रहबर नहीं होता।

कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है,
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता।

बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़्लूम को कैसे,
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता।

मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू,
सदा सच बोलने वाला कभी अफ़्सर नहीं होता।

ये पीले पात सब, पत्ते हरे आने नहीं देते,
अगर इनको मिटाने के लिये पतझर नहीं होता।
</poem>
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