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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है।
मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है।

कैसे मानूँ रूठ गया है वक़्त मेरा मुझसे,
मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साक़ी ज़िन्दा है।

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से,
कैसे अब तक मेरे भीतर बाग़ी ज़िन्दा है।

लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक,
इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है।

सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक,
ऐसे थोड़े ही दुनिया में पूँजी ज़िन्दा है।

आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन,
ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है।
</poem>
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