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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
देख तेरे संसार की हालत सब्र छूटने लगता है।
जिसको ताक़त मिल जाती है वही लूटने लगता है।

सरकारी खाते से फ़ौरन बड़े घड़े आ जाते हैं,
मंत्री जी के पापों का जब घड़ा फूटने लगता है।

मार्क्सवाद की बातें कर जो हथिया लेता है सत्ता,
कुर्सी मिलते ही वो फ़ौरन माल कूटने लगता है।

जिसे लूटना हो क़ानूनन मज़्लूमों को वो झटपट,
ऋण लेकर कंपनी खोलता और लूटने लगता है।

बेघर होते जाते मुफ़्लिस, तेरे घर बढ़ते जाते,
देख यही तुझ पर मेरा विश्वास टूटने लगता है।
</poem>
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