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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
प्रबंधन का अब उसको, सलीक़ा हो गया है।
ख़ुदा सा सर्वव्यापी, दरिंदा हो गया है।

यक़ीनन आज सच से, बड़ी ताक़त है बहुमत,
इसे पाकर दरिंदा, ख़ुदा सा हो गया है।

सियासत का है जादू, परिंदों का शिकारी,
लगाकर पंख उनके, फ़रिश्ता हो गया है।

प्रदूषण का असर है, या ए.सी. का करिश्मा,
हमारा ख़ून सारा, लसीका हो गया है।

हरा, भगवा ही केवल, बचे हैं आज इसमें,
तिरंगा था कभी जो, दुरंगा हो गया है।
</poem>
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