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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
श्रोडिंगर ने सच बात कही।
हम ज़िन्दा भी हैं मुर्दा भी।

इक दिन मिट जाएगी धरती।
क्या अमर यहाँ? क्या कालजयी?

उस मछली ने दुनिया रच दी।
जो ख़ुद जल से बाहर निकली।

कुछ शब्द पवित्र हुए ज्यों ही।
अपवित्र हो गए शब्द कई।

मस्तिष्क मिला बहुतों को पर,
उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली।

तेज़ाब काँच में रुकता है,
गल जाते हैं सोना चाँदी।
</poem>
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