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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
सभी पैरहन हम भुला कर चले।
तेरे इश्क़ में जब नहा कर चले।

न फिर उम्र भर वो अघा कर चले।
जो मज़्लूम का हक़ पचा कर चले।

गये ख़र्चने हम मुहब्बत जहाँ,
वहीं से मुहब्बत कमा कर चले।

अकेले कभी अब से होंगे न हम,
वो हमको हमीं से मिला कर चले।

न जाने क्या हाथी का घट जाएगा,
अगर चींटियों को बचा कर चले।

तरस जाएगा एक बोसे को भी,
वो पत्थर जिसे तुम ख़ुदा कर चले।

लगे अब्र भी देशद्रोही उन्हें,
जो भगवा ज़मीं को हरा कर चले।
</poem>
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