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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
सूरज मिटे, चंदा मिटे, धरती बनी जोगिन रहे।
हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे।

सूरत अगर बद हो तो हो सीरत मगर कमसिन रहे।
फिर चार दिन की ज़िन्दगी दो दिन रहे इक दिन रहे।

रोबोट हो या जानवर तब तो न कोई बात है,
इंसान को संभव कहाँ इंसानियत के बिन रहे।

हों पक्ष में सब या ख़िलाफ़त हो मेरी मंजूर है,
हो फ़ैसला जो भी मगर हर पल बहस मुम्किन रहे।

गर एक भाषा हो सभी की जीत लाएँ स्वर्ग हम,
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वो संस्कृत रहे लैटिन रहे।
</poem>
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