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|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
गर्म और नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे।
इक दिन गोरी लपटों के सँग सो जाएँगे।

द्वार किसी के बिना बुलाए क्यूँ जाएँ हम,
जब यम का न्योता आएगा तो जाएँगे।

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी,
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे।

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को,
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे।

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना,
जिनको जल्दी जाना ही है, वो जाएँगे।
</poem>
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