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|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
तेज़ चलना चाहता है तो अकेला चल।
दूर जाना चाहता तो ले के मेला चल।

काँच का घर बन चुका है, सूर्य चढ़ने दे,
साँप ख़ुद मर जाएँगें, तू फेंक ढेला, चल।

ज़िन्दगी अनजान राहों से गुज़रती है,
एक भटकेगा यक़ीनन हो दुकेला चल।

चल रही आकाशगंगा चल रहे तारे,
चल रहा जग तू भी अपना ले झमेला, चल।

खा के मीठा हर जगह से आ रहा है तू,
स्वस्थ रहना है तुझे तो खा करेला चल।
</poem>
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