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|संग्रह=अंधारै री उधारी अर रीसाणो चांद / मोनिका गौड़
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<poem>
बेचण-बिकण री मच रैयी
मार-काट
साव अबोट अर नूंवो-नकोर बताय
दबादब लगावै
आप-आपरै सामान री बोली
लारै नीं रैय जावां विकास में
चायै कीं भी करणो पड़ै
बायरै री डांग
लागी रैवै काळजै
हथेळी में सरस्यूं उगावणै री ताताई में
विग्यापन बण्योड़ा
लोग-लुगाई
मुळकै—रबडिय़ा मुळक
नैण करै—टमरका अणथक
अणथाग
जीभ तो जाणै सैक्रीन में
पड़ी रैयगी हुवै जुगां-जुग...
जिस्म
बण जावै जिनस मंडी री
मधरी मुळक बेचो
कै बेचो नैण-मटक्का
बोली लगावो सैण री
कोई पण हुवै काया
कै किणी री माया
पण कलदार री ढिगल्यां में
किचरीजता रैवै
भाव-संवेदना अर अैसास
अर ठोकरां रुळतो जमीर
बण्यो रैवै सतोळियै रो भाटो।
</poem>
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