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रूप बदळतो डर / मोनिका गौड़

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|संग्रह=अंधारै री उधारी अर रीसाणो चांद / मोनिका गौड़
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<poem>
डर लागै
चौफेर पसर्यै अणविस्वास सूं
बाळपणै में डरायो
गळी रै कुत्ता, गाय, छिपकली
अर काळती कंसारी सूं
डर लागतो अंधारै सूं
कैवती ही मां—
अळबाध ना करो
हाबू खा जासी
हाबू कितरै ई रूपां में
आय ऊभतो आंख्यां साम्हीं।

कदैई काळी मिनड़ी
कदैई गुंभारियै में हालता पड़दा
स्कूल रो होमवर्क ई
बण जावतो हाबू
भय-मुगत होवती
बाळपणै री म्हारी चेतना
टाबरां बिचाळै भीड़ में
लोगां रै साथै
बाळपणो मुळकतो हो
नचीताई सूं
मिनखां बिचाळै
पण मां
अठारा साल री होवतां-होवतां
डर रो सरूप बदळग्यो है
धीजो देवै गळी में भूसता कुत्ता
कंसारी री किर्र-किर्र
अबै हर गळी रै नुक्कड़-चौरावै
हर खिण स्त्री रै सागै हुवै
दैहिक, आर्थिक, मानसिक दुष्कर्म
खुला घूमै हाबू दो पगां रै ताण
कठै लुक जाऊं मावड़ी?
</poem>
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