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|संग्रह=अंधारै री उधारी अर रीसाणो चांद / मोनिका गौड़
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<poem>
कड़प लगा’र पेरै
ऊजळा धारदार उस्त्री करियोड़ा गाभा
कुड़तै री कोर सूं ई लोही निकळ जावै
जणैई तो मूंडै सूं निसरै तीखा भासण
विपखियां नैं झिंझोड़ता
किणी कारी लाग्योड़ै गाभा वाळै
मजूर रै मूंडै सूं
निसरती देखी है थे आग
धूजतै हाथां सूं उस्त्री करतो धोबी
नीं पावतो हुवैलो मान
पण नील, कड़प,
ड्राईक्लीन रो ध्यान राखतां हाजरियां भी
टंच राखै आपरै सफारी सूटां नैं
छोटा-छोटा छोटकियां री आवाज रोसै
न्याय री अरदास रा कागज
हुंवता रैवै चिंदी-चिंदी
कड़पदार, धारदार कुरता
उगळै आग...।
</poem>
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