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|संग्रह=अंधारै री उधारी अर रीसाणो चांद / मोनिका गौड़
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<poem>
म्हैं तो फगत निमित्त बणी
थारै मायावी धरमजुध री
थनैं चाईजती अडेखण
मनचींती करण कै रिगदोळण सारू
तो इण लुगाईजात सूं
सरल-सुभट नै सौरो कांई मिलतो...
हर बार
म्हारी कोमल-निरमळ मुळक
बणी सिकार
थां राज रै चालू-चालाक गिरजड़ां री।

मान क्यूं नीं लेवो थे
कै जैर
थां मांय भी पीढियां सूं पळ रैयो हो
अंतस री काळख
अर मान रै जगदिखाऊ खोळियै री अडवार!

पांडव!
थे भी बित्ता ई जैरीला हो
दोसी थे ई कौरवां सूं कमती नीं...
म्हैं द्रौपदी मांगू म्यानो
कै क्यूं रूप-सिणगार
मन री आजादी
अर चींत री चितार म्हारी
डरपावै थांनै इण भांत अणथक
म्हारा होवण रै ओळावै
क्यूं थरप देवो धणियाप थांरो
मालिक-रूप?
राज अर मूंछां री लड़ाई रा ठीकरा
क्यूं फोड़ता रैया हो हर बार
म्हारै सिर
महाभारत सूं आज तांई...!
घर-गळी कै आंगणै
थांरी मरदानगी साबित करण सारू
कद लग द्रौपदियां यूं ई हारती रैसी?
अर बिसरावती रैसी
खुद रो होवणो!
अब तो मान रे म्हारा मान !
धारलै पाछली
नीं तो नकार दियो जावैलो
थारो होवणो
आंती आई किणी द्रौपदी कानी सूं ।
</poem>
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