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|संग्रह=अंधारै री उधारी अर रीसाणो चांद / मोनिका गौड़
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<poem>
जोवती रैवूं
अेक टुकड़ो जमीन
आपरै आळणै सारू
बणावती कल्पना रा नक्शा
जचावती रैवूं मसालादानी सूं
लेय’र मिंदर रो अगरबत्ती-स्टैंड
जोवती आपरो मनचायो अेक खूणो
पोथ्यां साथै मुखमलियो बिस्तरो...
पण भखावटै निकळूं चाय सुडक़’र
कीं और तिणकला, घोचा भेळा करण सारू
आळणै नैं जचावण सारू...
ढूंढती रैवूं अेक टुकड़ो जमीन
मुड़्योड़ै अखबार में तुड़्योड़ो आज रो साच
सर देणी सूं निसर जावै... दीठ सूं...
हो जावै अदीठ...
रोज हाईवे पर सफर करै अलेखूं सुपना
सिंझ्या घरै बावड़ण सारू
जोवती रैवूं जमीन।
आळणै सारू
अेक पाटी मूंडै चिप्योड़ी
अेक पाटी हाथां बंध्योड़ी
आरसी करै सवाल... आ कुण है?
आग्या फगत आंख्यां रै कोईयां नैं हलावण री...
मूंडै जडिय़ा ताळा, कसमसीजै...
अमूजती करूं त्यार जबान नैं सवाल पूछण सारू
पण पैलां चाईजै जमीन
पगां हेठै... इणीज सारू
जोवती रैवूं जमीन
आपरै आळणै सारू...।
</poem>
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