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वाचक ! प्रथम सर्वत्र ही ‘जय जानकी जीवन’ कहो, <br>
फिर पूर्वजों के शील की शिक्षा तरंगों में बहो।<br>
दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो, <br>
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।<br>
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;<br>
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।<br>
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,<br>
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।<br>
सब लोग हिलमिल कर चलो, पारस्परिक ईर्ष्या तजो,<br>
भारत न दुर्दिन देखता, मचता महाभारत न जो।।<br>
हो स्वप्नतुल्य सदैव को सब शौर्य्य सहसा खो गया,<br>
हा ! हा ! इसी समराग्नि में सर्वस्व स्वाहा हो गया।<br>
दुर्वृत्त दुर्योधन न जो शठता-सहित हठ ठानता,<br>
जो प्रेम-पूर्वक पाण्डवों की मान्यता को मानता,<br>
तो डूबता भारत न यों रण-रक्त-पारावार में,<br>
‘ले डूबता है एक पापी नाव को मझधार में।’<br>
हा ! बन्धुओं के ही करों से बन्धु-गण मारे गये !<br>
हा ! तात से सुत, शिष्य से गुरु स-हठ संहारे गये।<br>
इच्छा-रहित भी वीर पाण्डव रत हुए रण में अहो।<br>
कर्त्तव्य के वश विज्ञ जन क्या-क्या नहीं करते कहो ?<br>
वह अति अपूर्व कथा हमारे ध्यान देने योग्य है,<br>
जिस विषय में सम्बन्ध हो वह जान लेने योग्य है। <br>
अतएव कुछ आभास इसका है दिया जाता यहाँ,<br>
अनुमान थोड़े से बहुत का है किया जाता यहाँ।।<br>
रणधीर द्रोणाचार्य-कृत दुर्भेद्य चक्रव्यूह को,<br>
शस्त्रास्त्र, सज्जित, ग्रथित, विस्तृत, शूरवीर समूह को,<br>
जब एक अर्जुन के बिना पांडव न भेद कर सके, <br>
तब बहुत ही व्याकुल हुए, सब यत्न कर करके थके।।<br>
यों देख कर चिन्तित उन्हें धर ध्यान समरोत्कर्ष का,<br>
प्रस्तुत हुआ अभिमन्यु रण को शूर षोडश वर्ष का।<br>
वह वीर चक्रव्यूह-भेदने में सहज सज्ञान था,<br>
निज जनक अर्जुन-तुल्य ही बलवान था, गुणवान था।।<br>
‘‘हे तात् ! तजिए सोच को है काम क्या क्लेश का ? <br>
मैं द्वार उद्घाटित करूँगा व्यूह-बीच प्रवेश का।।’’<br>
यों पाण्डवों से कह, समर को वीर वह सज्जित हुआ, <br>
छवि देख उसकी उस समय सुरराज भी लज्जित हुआ।।<br><br>

नर-देव-सम्भव वीर वह रण-मध्य जाने के लिए,<br>
बोला वचन निज सारथी से रथ सजाने के लिए। <br>
यह विकट साहस देख उसका, सूत विस्मित हो गया,<br>
कहने लगा इस भाँति फिर देख उसका वय नया-<br>
‘‘हे शत्रुनाशन ! आपने यह भार गुरुतर है लिया,<br>
हैं द्रोण रण-पण्डित, कठिन है व्यूह-भेदन की क्रिया।<br>
रण-विज्ञ यद्यपि आप हैं पर सहज ही सुकुमार हैं,<br>
सुख-सहित नित पोषित हुए, निज वंश-प्राणाधार हैं।’’<br>
सुन सारथी की यह विनय बोला वचन वह बीर यों-<br>
करता घनाघन गगन में निर्घोष अति गंभीर ज्यों।<br>
‘‘हे सारथे ! हैं द्रोण क्या, देवेन्द्र भी आकर अड़े,<br>
है खेल क्षत्रिय बालकों का व्यूह-भेदन कर लड़े।<br>
श्रीराम के हयमेध से अपमान अपना मान के,<br>
मख अश्व जब लव और कुश ने जय किया रण ठान के।।<br>
अभिमन्यु षोडश वर्ष का फिर क्यों लड़े रिपु से नहीं,<br>
क्या आर्य-वीर विपक्ष-वैभव देखकर डरते कहीं ?<br>
सुनकर गजों का घोष उसको समझ निज अपयश –कथा,<br>
उन पर झपटता सिंह-शिशु भी रोषकर जब सर्वथा, <br>
फिर व्यूह भेदन के लिए अभिमन्यु उद्यत क्यों न हो,<br>
क्य वीर बालक शत्रु की अभिमान सह सकते कहो ?<br>
मैं सत्य कहता हूँ, सखे ! सुकुमार मत मानो मुझे,<br>
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा जानो मुझे !<br>
है और की तो बात ही क्या, गर्व मैं करता नहीं,<br>
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं।।<br><br>

ज्यों ऊनषोडश वर्ष के राजीव लोचन राम ने, <br>
मुनि मख किया था पूर्ण वधकर राक्षसों के सामने।<br>
कर व्यूह-भेदन आज त्यों ही वैरियों को मार के,<br>
निज तात का मैं हित करूँगा विमल यश विस्तार के।।’’<br>
यों कह वचन निज सूत से वह वीर रण में मन दिए,<br>
पहुँचा शिविर में उत्तरा से विदा लेने के लिए।<br>
सब हाल उसने निज प्रिया से जब कहा जाकर वहाँ,<br>
कहने लगी वह स्वपति के अति निकट आकर वहाँ-<br>
‘‘मैं यह नहीं कहती कि रिपु से जीवितेश लड़ें नहीं,<br>
तेजस्वियों की आयु भी देखी भला जाती कहीं ?<br>
मैं जानती हूँ नाथ ! यह मैं मानती हूँ तथा-<br>
उपकरण से क्या शक्ति में हा सिद्धि रहती सर्वथा।।’’<br>
‘‘क्षत्राणियों के अर्थ भी सबसे बड़ा गौरव यही-<br>
सज्जित करें पति-पुत्र को रण के लिए जो आप ही। <br>
जो वीर पति के कीर्ति-पथ में विघ्न-बाधा डालतीं-<br>
होकर सती भी वह कहाँ कर्त्तव्य अपना पालतीं ?<br>
अपशकुन आज परन्तु मुझको हो रहे सच जानिए,<br>
मत जाइए सम्प्रति समर में प्रर्थना यह मानिए।<br>
जाने न दूँगी आज मैं प्रियतम तुम्हें संग्राम में, <br>
उठती बुरी है भावनाएँ हाय ! इस हृदाम में।<br>
है आज कैसा दिन न जाने, देव-गण अनुकूल हों;<br>
रक्षा करें प्रभु मार्ग में जो शूल हों वे फूल हों।<br>
कुछ राज-पाट न चाहिए, पाऊँ न क्यों मैं त्रास ही;<br>
हे उत्तरा के धन ! रहो तुम उत्तरा के पास ही।।<br><br>

कहती हुई यों उत्तरा के नेत्रजल से भर गये,<br>
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गये पंकज नये। <br>
निज प्राणपति के स्कन्ध पर रखकर वदन वह सुन्दरी, <br>
करने लगी फिर प्रार्थना नाना प्रकार व्यथा-भरी।।<br>
यों देखकर व्याकुल प्रिया को सान्त्वना देता हुआ,<br>
उसका मनोहर पाणि-पल्लव हाथ में लेता हुआ,<br>
करता हुआ वारण उसे दुर्भावना की भीति से,<br>
कहने लगा अभिमन्यु यों प्यारे वचन अति प्रीति से-<br>
‘‘जीवनमयी, सुखदायिनी, प्राणाधिके, प्राणप्रिये !<br>
कातर तुम्हें क्या चित्त में इस भाँति होना चाहिये ? <br>
हो शान्त सोचो तो भला क्या योग्य है तुमको यही।<br>
हा ! हा ! तुम्हारी विकलता जाती नहीं मुझसे सही।।<br>
वीर-स्नुषा तुम वीर-रमणी, वीर-गर्भा हो तथा,<br>
आश्चर्य, जो मम रण-गमन से हो तुम्हें फिर भी व्यथा !<br>
हो जानती बातें सभी कहना हमारा व्यर्थ है,<br>
बदला न लेना शत्रु से कैसा अधर्म अनर्थ है ?<br>
निज शत्रु का साहस कभी बढ़ने न देना चाहिए, <br>
बदला समर में वैरियों से शीघ्र लेना चाहिए समुचित सदा,<br>
वर-वीर क्षत्रिय-वंश का कर्त्तव्य है यह सर्वदा। <br>
इन कौरवों ने हा ! हमें संताप कैसे हैं दिए, <br>
सब सुन चुकी हो तुम इन्होंने पाप जैसे हैं किए !<br>
फिर भी इन्हें मारे बिना हम लोग यदि जाते रहें,<br>
तो सोच लो संसार भर के वीर हमसे क्या कहें ?<br><br>


जिस पर हृदय का प्रेम होता सत्य और समग्र है, <br>
उसके लिए चिन्तित तथा रहता सदा वह व्यग्र है। <br>
होता इसी से है तुम्हारा चित्त चंचल हे प्रिये !<br>
यह सोचकर सो अब तुम्हें शंकित न होना चाहिए—<br>
रण में विजय पाकर प्रिये ! मैं शीघ्र आऊँगा यहाँ,<br>
चिन्तित न हो मन में, न तुमको भूल जाऊँगा वहाँ !<br>
देखो, भला भगवान ही जब हैं हमारे पक्ष में,<br>
जीवित रहेगा कौन फिर आकर हमारे लक्ष में ?’’<br>
यों धैर्य देकर उत्तरा को, हो विदा सद्भाव से !<br>
वीराग्रणी अभिमन्यु पहुँचा सैन्य में अति चाव से।<br>
स्वर्गीय साहस देख उसका सौ गुने उत्साह से,<br>
भरने लगे सब सैनिकों के हृदय हर्ष-प्रवाह से।।<br>
फिर पाण्डवों के मध्य में अति भव्य निज रथ पर चढ़ा,<br>
रणभूमि में रिपु सैन्य सम्मुख वह सुभद्रा सुत बढ़ा।<br>
पहले समय में ज्यों सुरों के मध्य में सजकर भले;<br>
थे तारकासुर मारने गिरिनन्दिनी-नन्दन चले।।<br>
वाचक ! विचारो तो जरा उस समय की अद्भुत छटा<br>
कैसी अलौकिक घिर रही है शूरवीरों की घटा। <br>
दुर्भेद्य चक्रव्यूह सम्मुख धार्तराष्ट्र रचे खड़े, <br>
अभिमन्यु उसके भेदने को हो रहे आतुर बड़े।।<br>
तत्काल ही दोनों दलों में घोर रण होने लगा,<br>
प्रत्येक पल में भूमि पर वर वीर-गण सोने लगा !<br>
रोने लगीं मानों दिशाएँ हो पूर्ण रण-घोष से,<br>
करने लगे आघात सम्मुख शूर-सैनिक रोष से।।<br>

इस युद्ध में सौभद्र ने जो की प्रदर्शित वीरता, <br>
अनुमान से आती नहीं उसकी अगम गम्भीरता।<br>
जिस धीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया,<br>
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ले लिया।<br>
करता हुआ कर-निकर दुर्द्धर सृष्टि के संहार को,<br>
कल्पान्त में सन्तप्त करता सूर्य ज्यों संसार को-<br>
सब ओर त्यों ही छोड़कर जिन प्रखरतर शर-जाल को,<br>
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल को !<br>
शर खींच उसने तूण से कब किधर सन्धाना उन्हें;<br>
बस बिद्ध होकर ही विपक्षी वृन्द ने जाना उन्हें।<br>
कोदण्ड कुण्डल-तुल्य ही उसका वहाँ देखा गया,<br>
अविराम रण करता हुआ वह राम सम लेखा गया।<br>
कटने लगे अगणित भटों के रण्ड-मुण्ड जहाँ तहाँ,<br>
गिरने लगे कटकर तथा कर-पद सहस्त्रों के वहाँ।<br>
केवल कलाई ही कौतूहल-वश किसी की काट दी,<br>
क्षण मात्र में ही अरिगणों से भूमि उसने पाट दी।<br>
करता हुआ वध वैरियों का वैर शोधन के लिए,<br>
रण-मध्य वह फिरने लगा अति दिव्यद्युति धारण किए।<br>
उस काल सूत सुमित्र के रथ हाँकने की रीति से, <br>
देखा गया वह एक ही दस-बीस-सा अति भीति से।<br>
उस काल जिस जिस ओर वह संग्राम करने को क्या,<br>
भगते हुए अरि-वृन्द से मैदान खाली हो गया !<br>
रथ-पथ कहीं भी रुद्ध उसका दृष्टि में आया नहीं;<br>
सम्मुख हुआ जो वीर वह मारा गया तत्क्षण वहीं।<br><br>