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'''5.'''
मैं नदी हूँ
अनन्त सुख
देने वाली नदी
 
मैं पास आ रही
सुहानी हवाओं को
पहले से ही महसूस कर लेती हूँ
हवा जब छूती है मेरे गालों को
मैं सिहर उठती हूँ
 
मैं अन्तहीन चलती चली जाती हूँ
पहाड़ों, नदियों, झीलों
और घास के मैदानों की
अन्तहीन यात्रा पर
 
'''6.'''
 
मैं नदी हूँ जो अपने ही तटों पर घूमती है
पेड़ों और सूखे पत्थरों के आस-पास
 
मैं नदी हूँ जो साहिल पर टहलती है
अपने दिल के दरवाज़े खोलती
 
मै नदी हूँ गुज़रती हूँ चरागाहों के आर-पार
मैं फूल बीनती हूँ और गुलाब इकट्ठे करती हूँ
 
गलियों से गुज़रती हूँ
गीली धरती और आकाश के पार
 
पहाड़ों की यात्राएँ करती हूँ
चट्टानों और नमक के पर्वतों को काटती हुई
मैं उन घरों के पास से गुज़रती हूँ
जहाँ लटकी हुई हैं झूलाकुर्सियाँ और मेज़ें
 
मैं लोगों के मन के भीतर घुस जाती हूँ
उन्हें बदल देती हूँ
फलदार पेड़ों में
गुलाब की पत्तियों से भी नरम चट्टानों में
 
और उनके दिलों को
एक मेज़ में बदल देती हूँ
खुल जाता है दरवाज़ा
लम्बी यात्राओं से
घर वापिस लौटने वाले
घड़ी दो घड़ी बैठ कर वहाँ
सुकून पाते हैं
 
'''7.'''
 
नैं नदी हूँ
 
दोपहर में
उन लोगों के लिए गीत गाती हूँ
जो गाते हैं ख़ुद अपनी समाधियों के बाहर
 
और जो अपना चेहरा
पवित्र स्थलों की ओर मोड़े
खड़े हैं।
 
'''8.'''
 
मैं झुटपुटे में बहती नदी हूँ
अनजान लोगों को
गहरे गह्वरों में गिरने से बचाती हूँ
भूले-बिसरे क़स्बों और गाँवों के
रहवासियों के बीच पहुँच जाती हूँ
मैं नदी हूँ
घास के मैदानों से गुज़रती हूँ
उन पेड़ों के पास से
जिन पर बसे हुए हैं कपोत
 
ये पेड़ भी मेरे साथ-साथ गाते हैं
पक्षियों की तरह कोमल दिल वाली इस नदी को
गुटूर-गूँ, गुटर-गूँ वे अपना गीत सुनाते हैं
और गाते-गाते मेरी बाँहों में झूल जाते हैं
 
'''9.'''
'''मूल स्पानी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''
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