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खिल रही खिल-खिल हंसी

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खिल रही खिल-खिल हँसी
जीवन हुआ फूलों भरा,
शाम कोई ढल रही है
विहँसती है नवधरा |

अंकुरित से स्वप्न थे जो
नींद से अब जग रहे,
राह पथरीली रही
निश्चय सदैव अडिग रहे,
बहुत थी दुश्वारियाँ
आसान कुछ भी था नहीं,
थे फफोले पाँव में पर
स्थिर हमारे पग रहे,
बादलों के ओट से जो झाँकती है रोशनी,
खुल रहा मौसम चलो अब
छंट रहा है कोहरा |

मैं चली निर्बाध गति
जिस ओर नदिया ले चली,
नाव काग़ज़ की रही पर
दूर तक खेती चली,
था किनारा ही नहीं कोई
क्षितिज के छोर तक,
सुनहरी आभा लुभाती
स्वयं के माया छली,
काट कर सब रेशमी जाले
छलावे तोड़ कर,
एक निश्चित ठौर ढूँढे
अब कहीं मन बावरा |

साँझ ढलती है मगर इक
अजब सा अहसास है,
छूटता है वो कभी जो दूर था
पर पास है,
कुछ हृदय में मच रही हलचल
कहीं इक दर्द है,
पर सवेरा धवल होगा
यह बड़ा विश्वास है,
भूल पाना भी विगत को
कब सहज होता मगर
‘गर कदम हों दृढ़, सुना है,
समय देता आसरा |

</poem>