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|संग्रह=कूख पड़्यै री पीड़ / किशोर कल्पनाकांत
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<poem>
ओ गांव
उण डाढ़ोडै शहर री नकल कोनी
ओ है: अेक लघु संस्करण
महानगरी-पोथी रो सार रूप
लोकभाषा मांय करयोड़ो
अनुवाद!
अणगिणती मिनखां री भीड़
अठै कोनी
अठै कोनी: उठापटकी, धक्कामुक्की
मसीनी राकसां रो घमसाण
उणरा पळकारा‘र पड़गूंजां
जाणै
पांचवै-वेद री
नुवैं ग्यान-भेद री
आ अेक नैनी ऋचा
बेसुरी गायीजती होय!
बारै दीसतो
सोकीं सांच कोनी
झूठ-ई तो कोनी
बो है अेक परीजण
जिको
पाणी मांय रळबां
तरळायी री भांत
सांच‘र झूठ
अेकरूप ओळखीजै!
म्हारली संवेदणा
किणनै
किस्या परवाणां कूंतै?
बूझतो रैय जावैं मन
(ओ मन कंकरी चुग-चुग‘र महल बण्यो है)
डील साथै सायुज्य है
का स सायुज्य-प्रयासो
जड़ है क चेतण
बूझता रै भिजोक!

इणनै तूटताट जावण द्यो!
होय जांवण द्यो
ढमढेळ!
फेरूं
मन री कांकरी-कांकरी
ख्ंिाड-जावण द्यो!
खिंडळमिंडळ होय-होयनै संधणी
म्हारली पीड़
मन सूं जुड़ रैयी है!
मिनख री जूण
बठीनै मुड़ रैयी है-
जठीनै संस्कृति मुड़ रैयी है!
गांव‘र शहर अेकूंकार होयग्या है
तन‘र नम
- धन नै भाळता
दोनूं ई खोयग्या हैै।
</poem>
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