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मेरा शहर / कल्पना सिंह-चिटनिस

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|संग्रह=चाँद का पैवन्द / कल्पना सिंह-चिटनिस
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<poem>
एक सुलगते शहर की
लम्बी संकरी गलियां
अपनी वही पुरानी बास समोये

जिसमे परिवर्तन की चेतना
इस कम्प्यूटर और जेट युग में भी
थोड़ा रेंग कर थक जाती हैं
वह शहर मेरा है।

विशाल समुद्र में दूर कहीं
एक नन्हा, अभिशप्त द्वीप जैसा
जिसे सागर लहरों की आवाज़ तो सुनाये

पर हर लहर
बिना उस पर से गुजरे
बगल से निकल जाए।

एक समर्पित जीवन साथी सा
अपनी अभिशप्त सहचरी
फल्गु की नियति
शायद इसने भी बांट ली है,

इसके चारो तरफ परां बांधे
नंगी, निश्छाय पहड़ियाँ
रक्षा की ओट में
इसका दम घोंटती हैं

पर जाने क्यों
एक मौन-लीन साधक सा
यह सब कुछ सहता है

किन्तु फिर भी
नियति के घेरे में कैद
इस गूंगे शहर की हर दिशा से
दिल झकझोर देने वाली
एक आवाज़ उठती है,

यह कौन कराहता है?
चित्कारता यह स्वर किसका है ?
नहीं, मौन का भरम है हमें

यह तो यातना के तलघर में क़ैद
इन्साफ मांगता
शहर मेरा है।
</poem>
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