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|संग्रह=नई चेतना / महेन्द्र भटनागर
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[3] आज़ादी का त्योहार
लज्जा ढकने को
मैले आँचल से पोंछ लिए थे !
मेरे दोनों छोटे
रह-रह कर भर लेते हैं !
जिनको वर्षा की ठंडी रातों में
अंकुर उगते धीरे-धीरे हैं !
इनकी रक्षा को
आज़ादी के गाने गाता हूँ !
क्योंकि, मुझे आज़ादी बेहद प्यारी है !
1951
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