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|संग्रह=जूझती जूण / मोहम्मद सद्दीक
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<poem>
च्यारूंमेर रे
रोळां ऊं
काठो
अकीज, छकीज‘र
गूंग री
भावती-अणभावती
अेक/आद घूंट
गळै तळै उतार लीनी।
गळै तळै उतरतां पाण
गूंग री घूंट
आपरो आपो
दिखावणो सरू करयो
मन में
माथै में भंवता (कांवळां ज्यूं)
भावां रा भतूळिया
फेरूं ऊठणा बन्द होग्या।
गूंग रो असर होतां पाण
मिनख री सांतरी पिछाण करण रा
घणकरा‘क गुण
आपो आप ही
काया में, उपजण लागग्या।
गूंग री गिलोयोड़ो माटी पर
पांवड़ा धरतां पाण
मानखै रा चितराम
आपो आप उघड़ता जावै
काया रै घणै मांयलै पासै
अदीठ गड़ गूंमड़ा नै
भांग-भांग‘र
सरीसा कर नाखै।
काया में
ओपरा अणचाइजता
बैगड़ा रोग
अबै नईं पांग रै।
अड़ावै में अणचाइजती घास
अबै नईं ऊगै।
ऊंडी ओबरी रै
घणै डरावणै अंधारै स्यूं
डरपीजतो मन
गूंग री उजास ले‘र
सैं चन्नण होसी
बारलो भुलायां ही
मांयलो याद आवै
बारलै नै याद राख्यां
मांयलो हाथ स्यूं जासी
दोन्यां में
एक ही हाथ आसी।
</poem>
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