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|संग्रह=जूझती जूण / मोहम्मद सद्दीक
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<poem>
आदमी रै आदमी भरूंटिया भरै।
चूंट लेवै चामड़ी चरूंटिया भरै।।
खींच लेवै खालड़ी भरूंटिया भरै।
म्हारै म्हारा आदमी भरूंटिया भरै।।
रूपां-रूड़ो मानखो तो सामनै मरै।
काची-काची कूंपळां सै ऊगती डरै।।
कूकड़ै ज्यूं आदमी अकूरड़ी चरै।
आसरो उजास बट्ठै रूठिया करै।।
जागी देख लांय जट्ठै लोगड़ा डरै।
फुसका रै ढेर माथै आग क्यूं धरै।।
हीयै मांला शव किसी बात स्यूं भरै।
उर्यां पछै ऊंखळो में कूटिया करै।।
हेटै हाळी ठौड़ किसी मींझरां झरै
बाकै रा बखाण किसी पीड़ नै हरै।।
हाकमा हजूर थारै आदमी जरै।
घोड़ा नै पळीसै पाछै लूटिया करै।।
काळजै में हूक उट्ठयां नैण तो झरै।
लोई रा तळाब देख पाळ रै परै।।
जोधणी रा जाया हाथ खून में भरै।
हीयै हाथां आरसी जै छूटिया करै।।
पाणी रै पतासै नाईं फूटिया करै।

</poem>
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