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{{KKRachna
|रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
प्यास से सूखे तालू लिये, विकल थीं जब खाकी नसलें,
उस समय काटीं तुमने घोर घाम में सागर की फसलें।
उन्हीं फसलों के अब खलिहान, लगाये नीले आँगन में,
पधारे हो, लेकर सुरमई छटायें निर्मल जीवन में।
पधारो अभिनन्दन सौ बार तुम्हारी कठिन तपस्या के,
उच्चतम समाधान हो तुम्हीं हमारी गहन समस्या के.
आज धरती की दबी गुहार सतह के स्वर में गाती है,
मिट्टियों की शहजादी नई अदाओं से अँगडाती है।
टीस के कुछ कसकीले गीत, मलारें बन उर में घुमड़े,
पीर के कुछ तड़पीली गीत, कंठ से कजली बन उमड़े।
विरह के कुछ दर्दीले गीत, अधर से विरहा बन फूटे,
जिन्हें वाणी न मिल सकी, वही तपन से आंसू बन टूटे।
हम नहीं कहते हैं—बरसो न, किसी सोने की घाटी में।
बरसना किन्तु तुम्हें अनिवार्य, हार की प्यास माटी में॥
</poem>
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प्यास से सूखे तालू लिये, विकल थीं जब खाकी नसलें,
उस समय काटीं तुमने घोर घाम में सागर की फसलें।
उन्हीं फसलों के अब खलिहान, लगाये नीले आँगन में,
पधारे हो, लेकर सुरमई छटायें निर्मल जीवन में।
पधारो अभिनन्दन सौ बार तुम्हारी कठिन तपस्या के,
उच्चतम समाधान हो तुम्हीं हमारी गहन समस्या के.
आज धरती की दबी गुहार सतह के स्वर में गाती है,
मिट्टियों की शहजादी नई अदाओं से अँगडाती है।
टीस के कुछ कसकीले गीत, मलारें बन उर में घुमड़े,
पीर के कुछ तड़पीली गीत, कंठ से कजली बन उमड़े।
विरह के कुछ दर्दीले गीत, अधर से विरहा बन फूटे,
जिन्हें वाणी न मिल सकी, वही तपन से आंसू बन टूटे।
हम नहीं कहते हैं—बरसो न, किसी सोने की घाटी में।
बरसना किन्तु तुम्हें अनिवार्य, हार की प्यास माटी में॥
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