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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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<poem>
चलो चल कर वहीं पर बैठते हैं
जहां पर सब बराबर बैठते हैं
न जाने क्यों घुटन सी हो रही है
बदन से चल के बाहर बैठते हैं
हमारी हार का ऐलान होगा
अगर हम लोग थक कर बैठते हैं
तुम्हारे साथ में गुज़रे हुए पल
हमारे साथ शब भर बैठते हैं
बताओ किस लिये हैं नर्म सोफ़े
क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं
तुम्हारी बे हिसी बतला रही है
हमारे साथ पत्थर बैठते हैं
</poem>
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
}}
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चलो चल कर वहीं पर बैठते हैं
जहां पर सब बराबर बैठते हैं
न जाने क्यों घुटन सी हो रही है
बदन से चल के बाहर बैठते हैं
हमारी हार का ऐलान होगा
अगर हम लोग थक कर बैठते हैं
तुम्हारे साथ में गुज़रे हुए पल
हमारे साथ शब भर बैठते हैं
बताओ किस लिये हैं नर्म सोफ़े
क़लन्दर तो ज़मीं पर बैठते हैं
तुम्हारी बे हिसी बतला रही है
हमारे साथ पत्थर बैठते हैं
</poem>