भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatKavita}}
<poem>
संवेदना, मन की सहज व्यथा है। "आह मेरी देह के अवयव एक से उपजा गान" है। यह न पैदा की जा सकती, न मिटाई जा सकती है। हाँ, कभी-कभी परिस्थितियाँ, किंकर्तव्यविमूढ़ बना जाती हैं। नहीं
पीछे की स्मृति, इन दिनों...आगे की चिंता, कोष और सैन्यबल बोध के व़गैर, पहाड़ों का ठोस ठहरावघोषित राजा को क्षणढ़हकर बह जाना चाहता है कतरा-क्षण, दायित्वबोध करानेवालीलोकतांत्रिक प्रजा। तुर्रा ये कित्रुटियों के हिसाब लेखन हेतु, कतरा टूटकरचित्रगुप्तों मिल जाना चाहता है नदी की बारात। कलकल में
अघोषित और दीर्घकालीन संघर्षव्यक्ति को व्यक्ति नहीं रहने देता। पत्थर किंतु तलछट की चोट से घिसा, काई उपटकर जो व्यक्ति, व्यक्ति ही न रहा, उसके नाम पानी के पीछे, "संवेदनशील" विशेषण की लालसा क्यों? साथ बह रही है ...इन दिनों
तभी तो, रोज रात मेरे पैताने बैठजब तथ्यों से परे। तुम जो मुझे यूं घूरते रहते हो.....वाहियात मानसिकता का लबादा पहन। भेंड़चाल में जबरन शामिल करने को आतुर। खींसे निपोरता बहेलियाआडम्बर की ओट क्या मेरी जिहन से, विषसिक्त बाणों के प्रहारकोमल गात पर करते हैं। रक्तश्राव और उससे होनेवालीअसह्य पीड़ा की चिंता किए बगैर, सुई की नोंक चुभो चुभोकर, नैतिकता से हँसकर बात करतेचेहरे के होंठ सिलते हैं। तत्व चुराने आए हो ?
ऐसे क्रांतिक क्षणों आत्मा का रंग इन दिनों नीला पड़ा है ख्वाब में अक्सरतना शामियानाछानकर गिराता रहता है किरणों का ढ़ेरकि ज्यों खपरैल से गिरती रहती है रोशनी कहा था....कि पूरे सौरमंडल की यात्रा करनी थी तुम्हें मेरे साथएक-एक चीज़ छूकर देखनी थी ...खुद से एक मैं ही हतभागी तो नहीं अक्षरों की पिटती लकीर के साक्षी हैं ....ये दरख्त , हवा , पानी , धूल , किरणें , रोशनीविद्रूपता अपनी सफलता पर मुसकाती है। बताया मुझेऔर संवेदनशीलताकि तुम्हें कहीं जाना तो था ही नहीं सुनो! किसी अज्ञात पते मुझे वक्त की बरबाद खेती समेटनी हैकि हाट अब अपने अंतिम पड़ाव पर, अकर्मण्य भाव से क्रमशः, करवट लेता चाहता है मेरी नज़्म! निस्तेज होती चली जाती है। मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूं
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader
6,574
edits