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रूठे हैं जो क़िस्मत के तारों के बहाने से
वो मान भी जाएँगे थोड़ा सा मनाने से
तन्हाई से घबरा के निकले थे सुकूँ पाने गम ले के चले आए ख़ुशियों के घराने से सीता तो हुई रुसवा ,मीरा को गरल , अब भीकृष्णा ये कहे ठहरो ! बाज़ आओ सताने से सीने में समन्दर के एक आग भी होती है भड़के तो ,कहाँ साथी ! बुझती है बुझाने से हारेंगे न बैठेंगे ,तुम लाख जतन कर लो सीखे हैं सबक़ हमने उस्ताद ज़माने से ! </poem>