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|रचनाकार=गन्धर्व कवि पं नन्दलाल
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<poem>
'''भक्ति और तपस्या करणा, आपा मारे हो सै,'''
'''घर बसणे की रीत जगत मै, सोच विचारे हो सै ।। टेक ।।'''

काग बुराई नहीं तजै, चाहे चारों वेद पढ़ा ले,
गधा गऊ ना हो सकता, चाहे गंगा बीच नुहा ले,
सर्प जहर न तजै नहीं, चाहे नित की दूध पिला ले,
कर्म छिपाये ना छिपता, चाहे तन पै खाक रमा ले,
सादे नयन कटारा से, के सुरमा श्यारे हो सै।।

क्षत्री का ये कायदा होता सिर पै ताज धरण का,
बैठ तख्त पै करै हुकूमत न्याय इंसाफ करण का,
रैयत का ये फर्ज बताया सुण कै हुक्म डरण का,
दो वक्त वो करै सैल ना जब होता टेम फिरण का,
गैर टेम और बिना मेळ,के जीमण वारे हो सै।।

यज्ञ और दान धर्म का करणा नामा लाये हो सै
दो रोटी दी पेट भरण नै के अन्न खज खाये हो सै,
जिसको ना संतोष होया फेर के धन पाये हो सै,
शुद्ध संतान जगत मै चाहिए तो ब्याह करवाये हो सै,
बदनामी की बात मनुष्य की,शर्म उतारे हो सै।।

तनै भठीयारी तै मेळ करया या कब तक पार करैगी,
मोती कैसी आब मनुष्य की इन बातां तै उतरैगी,
दसुं दिशा एकसार नहीं के बेरा कुणसी हवा फिरैगी,
कहै नंदलाल बदी ना करीये या नेकी पार तरैगी,
साची तो चाहे कहो कान मै,के घणा पुकारे हो सै।।
</poem>
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