|रचनाकार=गोपालदास "नीरज"
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एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !
एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के ! <br>बाँसुरी से बिछुड़ जो गया स्वर उसेसाँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर ! <br><br>लिया कंठ में शून्य आकाश ने,डाल विधवा हुई जोकि पतझर मेंमाँग उसकी भरी मुग्ध मधुमास ने,
बाँसुरी से बिछुड़ जो हो गया स्वर उसे<br>कूल नाराज जिस नाव सेभर लिया कंठ में शून्य आकाश ने,<br>पा गई प्यार वह एक मझधार काडाल विधवा हुई जोकि पतझर बुझ गया जो दीया भोर में<br>दीन-सामाँग उसकी भरी मुग्ध मधुमास नेबन गया रात सम्राट अंधियार का,<br><br>
हो गया कूल नाराज जिस नाव से<br>जो सुबह रंक था, शाम राजा हुआजो लुटा आज कल फिर बसा भी वही,पा गई प्यार वह एक मझधार का<br>मैं ही कि जिसके चरण से धराबुझ गया जो दीया भोर में दीनरोज तिल-सा<br>बन गया रात सम्राट अंधियार का,<br><br>तिल धसकती रही उम्र-भर !
जो सुबह रंक था, शाम राजा हुआ<br>जो लुटा आज कल फिर बसा भी वही,<br>एक मैं ही कि जिसके चरण से धरा<br>तरे बिना प्राण ओ प्राण के !रोज तिल-तिल धसकती साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर ! <br><br>प्यार इतना किया जिंदगी में कि जड़-मौन तक मरघटों का मुखर कर दिया,रूप-सौंदर्य इतना लुटाया कि हरभिक्षु के हाथ पर चंद्रमा धर दिया,
एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !<br>साँस मेरी सिसकती रही उम्र भर ! <br>प्यार इतना किया जिंदगी में कि जड़भक्ति-<br>मौन तक मरघटों का मुखर कर दियाअनुरक्ति ऐसी मिली,<br>रूपसृष्टि की-सौंदर्य इतना लुटाया कि शक्ल हर<br>एक मेरी तरह हो गई, जिस जगह आँख मूँदी निशा आ गई,भिक्षु के हाथ पर चंद्रमा धर दियाजिस जगह आँख खोली सुबह हो गई,<br><br>
भक्तिकिंतु इस राग-अनुरक्ति ऐसी मिली, सृष्टि अनुराग कीराह परवह न जाने रतन कौन-<br>सा खो गया?शक्ल हर एक मेरी तरह हो गई, <br>खोजती-सी जिसे दूर मुझसे स्वयंजिस जगह आँख मूँदी निशा आ गई,<br>जिस जगह आँख खोली सुबह हो गई,<br><br>आयु मेरी खिसकती रही उम्र-भर- !
किंतु इस राग-अनुराग की राह पर<br>एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !वह न जाने रतन कौन-सा खो गया?<br>खोजती-सी जिसे दूर मुझसे स्वयं<br>आयु साँस मेरी खिसकती सिसकती रही उम्र-भर- !<br><br>
एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !<br>साँस मेरी सिसकती रही उम्रवेश भाए न जाने तुझे कौन-भर ! <br><br>सा?इसलिए रोज कपड़े बदलता रहा,किस जगह कब कहाँ हाथ तू थाम लेइसलिए रोज गिरता संभलता रहा,
वेश भाए न जाने तुझे कौन-सा?<br>सी मोह ले तान तेरा हृदयइसलिए रोज कपड़े बदलता रहागीत गाया सभी राग का,<br>किस जगह कब कहाँ हाथ तू थाम ले<br>छेड़ दी रागिनी आँसुओ की कभीइसलिए रोज गिरता संभलता रहाशंख फूँका कभी क्राँति का आग का,<br><br>
कौन-सी मोह ले तान तेरा हृदय<br>किस तरह खेल क्या खेलता तू मिलेइसलिए गीत गाया खेल खेले इसी से सभी राग का, <br>विश्व केछेड़ दी रागिनी आँसुओ की कभी<br>कब न जाने करे याद तू इसलिए शंख फूँका कभी क्राँति का आग का,<br><br>याद कोई कसकती रही उम्र-भर !
किस तरह खेल क्या खेलता तू मिले<br>खेल खेले इसी से सभी विश्व एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के<br>कब न जाने करे याद तू इसलिए <br>!याद कोई कसकती साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !<br><br>
एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !<br>रोज ही रात आई गई, रोज हीसाँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर!<br><br>आँख झपकी मगर नींद आई नहींरोज ही हर सुबह, रोज ही हर कलीखिल गई तो मगर मुस्कुराई नहीं,
रोज नित्य ही रात आई गई, रोज ही<br>रास ब्रज में रचा चाँद ने आँख झपकी मगर नींद आई नहीं<br>पर न बाजी बाँसुरिया कभी श्याम कीरोज ही हर सुबह, रोज ही हर कली<br>इस तरह उर अयोध्या बसाई गईखिल गई तो मगर मुस्कुराई नहीं,<br><br>याद भूली न लेकिन किसी राम की
नित्य ही रास ब्रज हर जगह जिंदगी में रचा चाँद ने <br>लगी कुछ कमीपर न बाजी बाँसुरिया कभी श्याम की<br>हर हँसी आँसुओं में नहाई मिलीइस तरह उर अयोध्या बसाई गई<br>हर समय, हर घड़ी, भूमि से स्वर्ग तकयाद भूली न लेकिन किसी राम की<br><br>आग कोई दहकती रही उम्र-भर !
हर जगह जिंदगी में लगी कुछ कमी<br>एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !हर हँसी आँसुओं में नहाई मिली<br>हर समय, हर घड़ी, भूमि से स्वर्ग तक<br>आग कोई दहकती सांस मेरी सिसकती रही उम्र-भर ! <br><br>!
एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !<br>खोजता ही फिरा पर अभी तक मुझे सांस मेरी सिसकती रही उम्रमिल सका कुछ न तेरा ठिकाना कहीं,ज्ञान से बात की तो कहा बुद्धि ने -भर !!<br><br>'सत्य है वह मगर आजमाना नहीं',
खोजता ही फिरा पर अभी तक मुझे <br>धमर् के पास पहुँचा पता यह चलामिल सका कुछ न तेरा ठिकाना कहींमंदिरों-मस्जिदों में अभी बंद है,<br>ज्ञान से बात की तो कहा बुद्धि जोगियों ने जताया है कि जप-<br>'सत्य योग है वह मगर आजमाना नहीं', <br><br>भोगियों से सुना भोग-आनंद है
धमर् के पास पहुँचा पता यह चला<br>किंतु पूछा गया नाम जब प्रेम से मंदिरों-मस्जिदों में अभी बंद हैधूल से वह लिपट फूटकर रो पड़ा,<br>जोगियों ने जताया है कि जप-योग है,<br>बस तभी से व्यथा देख संसार कीभोगियों से सुना भोगआँख मेरी छलकती रही उम्र-आनंद है<br><br>भर !
किंतु पूछा गया नाम जब प्रेम से <br>धूल से वह लिपट फूटकर रो पड़ा,<br>बस तभी से व्यथा देख संसार की<br>आँख मेरी छलकती रही उम्र-भर !<br><br> एक तरे बिना प्राण ओ प्राण के !<br>
साँस मेरी सिसकती रही उम्र-भर !!
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