भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
1,613 bytes removed,
06:41, 2 अगस्त 2018
पुनियाँ के चाननी में रँगल,
केकरो नेह के निसानी!
देखऽ ही
कहाँ तलक,
कते कदम
चलऽऽ हे
साथ कउन;
देखऽ ही।
लहके जग,
छतरी तब
रखऽऽ हे
माथ कउन;
देखऽ ही।
राह चले,
रार करे;
मारऽ हे
लात कउन
देखऽ ही।
मरहम-सन,
सरगम-सन
करऽऽ हे
बात कउन;
देखऽ ही।
काँट चुभे,
चोट लगे...
थमऽऽ हे
हाथ कउन;
देखऽ ही।
देके बचन
जा हे मुकर
खींसऽ हे
दाँत कउन;
देखऽ ही।
दूर-दूर,
बाउजूद
रहऽऽ हे
साथ कउन;
देखऽ ही।
तोहर निठुरपना
मेह
तोहर नेह के
ऊ घड़ी
काहे न बरसऽ हे,
जउन घड़ी जान हमर
बून-बून लऽ तरसऽ हे।
समय जब ठँूस दे हे
दिल-दिमाग-देह में
लह-लह अँगार,
इआर!
दुर्लभ हो जा हे
काहे तब तोहर दीदार?
आँख हमर,
हांेठ हमर,
कंठ हमर,
कान हमर...
पोरे-पोर देह के, रोमे-रोम देह के
रेगिस्तान के दुपहरिया-सन
जरे जब लगऽ हे,
सच्चो, तोहर निठुरपना
खले बहुत लगऽ हे।
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader