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05:50, 15 अगस्त 2018
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वह खोयी हुई मुस्कानों का शहर था वहाँ कोई मुस्कराता घड़ियाँ कलाईयों पर नहीं था हैं अब वे मुट्ठियों में हैं या जेबों में न सब्जीवाला न पनवाड़ी पर समय गिरेबान पर चढ़ गया है न राशन न परचून की दुकानवाला और रेत रहा है
मुस्कान कब खोयी समय की फिक्र से बच गयी हैं भुजायें पता नहीं और हथेलियों या जेबों में बची हैं सिर्फ़ बन्द घड़ियाँ ही कब थी पता नहीं आखिरी बार कब दिखी पता नहीं समय के फिसलने के बाद
कविता घड़ियों ने समय को व्यक्त करने से मना कर दिया है तो क्या गलतबयानी की यहाँ हरगिज जगह वे उससे बँध कर नहीं रहना चाहतीं और न ही उसे बाँध कर रखना चाहती हैं काँच के किसी घेरे में
मुस्कान तो थी जनाब यहाँ ठीक नीचे एक शहर था जहाँ लोग मुस्काते थे दीवार अब समय देखे जाने की माकूल जगह नहीं रहीऔर मुस्कानों के मलवे में ही दबे थे घड़ियाँ अब वहाँ टाँगे जाने से बगावत कर बैठी हैं
जब एक पुरातत्वशास्त्री शहर के बाहर के टीलों में निकाल आया थाकिसी मुस्कानों के नगर का भग्नावशेष कविता है तो क्या पुरानी बातों से सिर्फ़ मुस्कान की तसदीक नहीं होती अभी तो मुस्काया था काँच की दीवारों के पीछे कोई सेल्समैन जब तुम गुजर रहे थे उसकी दुकान के आगे पर तुमने मुस्कान दबायी थी पता नहीं उसे वह तुम्हारी कोई कमजोरी समझ ले और बेच डाले कोई बीमा या बरतन या कपड़े या कुरसी तो जनाब मुस्कराना पीड़ित या पीड़क होने का सिम्बल था यहाँ और इसलिये लोग जो काँच की किसी दीवार के पीछे नहीं थे किसी विवशतावश वे मुस्कराहट छुपा जाते थे और वह शहर खोयी हुई मुस्कानों का शहर था कि मुस्कान सिर्फ़ बिकती थी और जो खरीदना नहीं चाहता था वह मन से मलिन होता था खोयी हुई मुस्कानों के शहर में एक बात और अलग थी कोई था जो ठठा कर हँसता था शायद वह कोई और था और वह किसी काँच की दीवार टावर पुरातत्व के पीछे अवशेष भर हैं अपनी मुस्कान और पेट लिये नहीं खड़ा था वह मुस्कानों की कालाबाजारी का कोई व्यापारी था उसकी अपनी ऊँची दीवारें थी वही मुस्कराता था वही ठठा कर हँसता था हम बस नीचे दबे हुए खोयी हुई मुस्कानों के शहर के बाहर निकलने की उम्मीद कर सकते थे बस।बन्द पड़ी हैं घड़ियाँ।</poem>