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<poem>
यदि तुम्हारे शब्द
लुहार के मुँह में रखे
नमक के ढेले से
गले में उतरते
कड़वेपन
और धौंकनी की
आग में
रक्ततप्त हो चुके लोहे से
आगे निकलकर
विरोध की तपिश
आलोचनाओं का खारापन
झेलकर
कविता बुन सकते हैं
तो यक़ीनन
तुम्हारे पसीने का स्वाद
लुहार के पसीने
जैसा होगा
वरना
ना तो हर नमकीन पानी
पसीना होता है
और ना ही
तुरपे गए शब्द
कविता !!
</poem>