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|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
जख़्मे-दिल दर्द का जब दिल को मज़ा देता है
तेरी बहशी तेरे खंज़र को दुआ देता है

तू मुझे जख़्म बहरगाम नया देता है
मैंने क्या जुर्म किया है कि सज़ा देता है

बेवफाओं से है उम्मीद वफ़ा की बेकार
कागज़ी फूल कहीं बूए-वफ़ा देता है

गिर ही जाता है वे ऐसा कि कभी उठ न सके
तू जिसे अपनी निगाहों से गिरा देता है

याद दिल बन के तेरी रहती है सीने में मेरे
नाम याद आ के तेरा मुझको रुला देता है।

उनको क्या काम भला जामे-मये कौसर से
तू जिन्हें अपनी निगाहों से पिला देता है

मेरा हर अश्क़ जो बहता है इनायत से तेरी
एक उठते हुए तूफां का पता देता है

तूने ऐ साक़िए-महफ़िल कभी सोचा भी है
कौन हर शाम तेरे दर पे सदा देता है

दिल में नग़मे से बिख़र उट्ठे हैं फिर ए 'अंजान'
फिर मुझे आज कोई छुप के सदा देता है।

</poem>
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