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|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
ये आज मुझ पे किसका अहसान हो गया
जीने का मुझको फिर से अरमान हो गया है

लो वो भी हंस रहा है मेरी तबाहियों पर
दिल जान जिस पे हंस कर क़ुर्बान हो गया है

जो जख़्म तूने मुझको पहले पहल दिया था
वो जख़्म मेरे दिल की पहचान हो गया है

उस शोख़ की परस्तिश और सैर मैकदों की
ये कुफ़्र मेरे हक़ में ईमान हो गया है

तेरी बेरुखी पे कुरबां जिसके सबब से मुझको
हस्ती का अपनी कुछ कुछ इरफान हो गया है

तेरे जख़्म मेरे दिल में और उस पे मेरी वहशत
तेरा करम कि जीना आसान हो गया है

जंचती नहीं नज़र में तब से कोई भी शौकत
वो शोख़ जबसे मेरा मेहमान हो गया है

क्या वक़्त आ गया है आती नहीं है गैरत
कितनी हबस का मारा इंसान हो गया है

जीने की आरज़ू है न है मौत की तमन्ना
क्या हाल तेरे दिल का अंजान हो गया है।



</poem>
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