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|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
तवज्जो का सबब शायद तेरा आज़ार हो जाये
अजब क्या है तेरा ऐ दिल कोई ग़मख़ार हो जाये

अगर किस्मत हमारा साथ दे तो हो भी सकता है
कि तूफानों से टकरा के भी कश्ती पर हो जाये

ठहर ऐ नामुरादे ज़ीस्त मर जाने से क्या हासिल
तेरे जीने का मुमकिन है कोई आसार हो जाये

न कर इतना सितम ज़ालिम कि इस दुनियाए-फ़ानी से
कहीं ऐसा न हो रुख़्सत तेरा बीमार हो जाये

यही हसरत हम अपने दिल में लेकर घर से निकले हैं
हमें ऐ काश तेरा राह में दीदार हो जाये

ख़ुदा ऐसा करे तुम भी किसी की याद में तड़पो
मेरी सूरत तुम्हें भी जिंदगी दुश्वार हो जाये

तुम्हारा दिल भी रोये हिज्र की तारीक़ रातों में
तुम्हारी सांस भी चलती हुई तलवार हो जाये

तसव्वुर में बुलंदी हो तो मुमकिन हो भी सकता है
पलक को बन्द करते ही तेरा दीदार हो जाये

बहारे-बागे हस्ती लौटकर फिर आ भी सकती है
अगर उनको भी ऐ अंजान हमसे प्यार हो जाये।
</poem>
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