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|रचनाकार=प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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|संग्रह=तुमने कहा था / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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<poem>
गिला है कुछ मुक़द्दर से न शिकवा है सितमगर से
हमें अपनों ने मारा है छुपे हाथों के खंज़र से

सभी मरते हैं दुनिया में मरों मत मौत से यारो
मरो तो मौत से मरना न मरना मौत के डर से

तुम्हें मिलने की हसरत में हम अपना चैन खो बैठे
तुम्हारी याद में तड़पे तुम्हारी दीद को तरसे

ये शायद कुछ कमी लाये मेरे अश्क़ों के तूफां में
गुज़र जाने दो अश्क़ों के समंदर को मिरे सर से

छुपा के मौत लाये थे वो काली रात के बादल
जो बादल उनपे बरसे हैं वो हम पर क्यों नहीं बरसे

हम अपने आप उठ जाएं ये हरगिज़ हो नहीं सकता
जनाज़ा ही उठेगा अब हमारा आप के दर से।
</poem>
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