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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
इक अक्से-दिल-पज़ीर तहे-आब देखना
मेरी सरिश्त में है कोई ख़्वाब देखना

इक अब्र-सा बरसना, किसी मर्गज़ार पर
और एक रेज़गार को सेराब देखना

नायाब ही समझना उसे हर लिहाज़ से
लेकिन उसी के शामो-सहर ख्वाब देखना

हर रोज़ ही उठाना, गये वक़्त की किताब
जिसमें हो तेरा ज़िक्र वही बाब देखना

दिन भर पहन के फिरना दरीदा लिबास ही
शब को बदन पे अतलसो-कमख्वाब देखना।
</poem>
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