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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
उभर ही आता है अक्सर नये ग़मों की तरह
वो नक़्श दिल में जो है ताज़ा हादिसों की तरह

वो हम सफ़र तो नहीं अब रहा मिरा लेकिन
मुझे वो आज भी मिलता है दोस्तों की तरह

अब उनको अपने तसव्वुर में कौन झलकाए
गुज़र गये हैं जो दिन बहते पानियों की तरह

मैं रेज़गार से इक दिन निकल ही जाऊंगा
तपिश मे चलते सुबक गाम काफिलों की तरह

न जाने कौन से ग़म से फरार ढूंढे है
वो एक शख्स जो घूमे है जोगियों की तरह

तुम्हारे जिस्म की यादें हैं दिल के मंदिर में
चिराग़ उठाये हुए देवदासियों की तरह।

</poem>
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