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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
री आवाज़ सुनूँगा मैं गजर की सूरत
तुझको देखूंगा अंधेरों में सहर की सूरत

ज़ेहन बरसों से भटकता है किसी जंगल में
इक ज़माना हुआ देखा नहीं घर की सूरत

दिन जो निकलेगा तो बिखरेगी यहां दर्द की धूप
किसने सोचा था कि ये होगी सहर की सूरत

कोई मंज़िल ही नहीं फिर भी चला जाता हूँ
ज़िन्दगी मुझको मिली एक सफ़र की सूरत

आज मैं उससे जुदा होके जो तन्हा लौटा
बदली बदली सी लगी राहगुज़र की सूरत

ज़िन्दगी का मुझे एहसास दिलाती है हवा
मेहर रस्ते में खड़ा हूँ मैं शजर की सूरत।

</poem>
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