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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
बिछुड़ गया जो इसी शहर में कभी मुझसे
वो भीड़ में भी अकेला दिखाई देता है

ख़याले-लुत्फ़े-सफ़र है किसे, जिसे देखो
वो मंज़िलों का ही भूखा दिखाई देता है

ये काफ़िला है सभी मिल के चल रहे हैं मगर
हरेक शख्स ही तन्हा दिखाई देता है

क़रीब जाऊं तो शायद वो बात भी न करे
जो दूर से मुझे अपना दिखाई देता है

मैं फिर रहा हूँ सलीबों के शहर में ऐ मेहर
हरेक शख्स मसीहा दिखाई देता है।


</poem>
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