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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
प्यास की शिद्दत हो तो ऐसा हो सकता है
हर चश्मे का पानी मीठा हो सकता है

उसका हाल भी मेरे जैसा हो सकता है
मुझसे बिछड़कर वो भी तन्हा हो सकता है

हर रस्ता जब जा सकता है तेरे घर को
हर रस्ता फिर मेरा रस्ता हो सकता है

मेरे आंगन में ख़ुशबू का झोंका आये
सोच रहा हूँ मैं क्या ऐसा हो सकता है

जिस मंज़र को ढूंढ रहा हूँ इस दुनिया में
वो मंज़र भी सूना सूना हो सकता है

हो सकती है हर इक शख्स की एक मंज़िल
रस्ता लेकिन अपना अपना हो सकता है

किसको दावा किसकी ग़मख्वारी का है अब
मेहर इस दौर में कौन किसी का हो सकता है।
</poem>
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